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500 से अधिक किस्म के स्वदेशी बीज संरक्षित कर रहा यह वैज्ञानिक...

विश्व में जिस तरह से संकर बीजों का प्रचलन खेती में बढ़ा है ठीक उसी तरह से संकर बीजों के रख-रखाव करने के लिए किसानों को आवश्यकता है कि वे ये सुनिश्चित करें कि गुणवत्तायुक्त स्वदेशी पौधों और सब्जियों की किस्मों को आने वाली पीढ़ी को भी उपलब्ध करवाया जा सके।

विश्व में जिस तरह से संकर बीजों का प्रचलन खेती में बढ़ा है ठीक उसी तरह से संकर बीजों के रख-रखाव करने के लिए किसानों को आवश्यकता है कि वे ये सुनिश्चित करें कि गुणवत्तायुक्त स्वदेशी पौधों और सब्जियों की किस्मों को आने वाली पीढ़ी को भी उपलब्ध करवाया जा सके।

आज के समय में यदि आपसे सब्जी मंडी जाकर सब्जियां खरीदने के लिए लिस्ट तैयार करने के लिए कहा जाए तो आप उसमें प्रमुखता से खीरा, गाजर, शिमला मिर्च, बींस, टमाटर जैसी सब्जियों को अवश्य सूचीबद्ध करेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि इन सब्जियों की एक किस्म ही बाजार में उपलब्ध है। यह एक अपवाद है कि बाजार में तीन रंग की शिमला मिर्च या दो तरह की बींस मिलती हैं लेकिन यदि आप आज से 100 वर्ष पहले यदि बाजार में जाते तो आपको नाना प्रकार की पत्तागोभी, मटर, टमाटर, कद्दू, मक्का आदि देखने को मिलते। यहां हम एक ऐसे ही शख्स की कहानी आपके साथ साझा करने जा रहे हैं जिन्होंने बीज रखने वालों के दर्द को समझा और खुद उस दिशा में अपने कदम बढ़ा दिए। वे और कोई नहीं बल्कि डॉ. प्रभाकर राव हैं जिन्होंने देशभर में ही नहीं बल्कि विदेशों से भी विलक्षण किस्म के बीज एकत्रित कर उन्हें संरक्षित करने का सराहनीय कार्य किया है।

भूरी व बैंगनी मिर्च

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि नेशनल ज्योग्राफिक मैगजीन में वर्ष 2011 के जुलाई संस्करण में इस संदर्भ में छपा था कि 80 के दशक में हम विविधता की ओर तो बढ़े लेकिन हम 93 प्रतिशत तक वे सभी किस्में खो चुके हैं जिनका पहले कभी वजूद हुआ करता था। यह सन् 1983 की बात है। यदि यही सर्वे या शोध आज किया जाए तो हम पाएंगे कि सब्जियों में हमने 99 प्रतिशत तक विविधता खो दी है जिन्हें किसानों व बीज रखने वाले किसानों ने बरसों मेहनत कर संजोकर रखा था।  

पहले के समय में यह होता था कि किसान अच्छी गुणवत्ता के पौधों का इस्तेमाल करते थे और उनके बीजों को अगले सीजन के लिए संरक्षित करते थे। इस क्षेत्र में कभी कोई बिजनेस मॉडल नहीं रहा जिसके तहत बीजों की संख्या को दोगुना करने का काम किया जाता हो। यदि बीज रखने वाला किसान अन्य किसान भाइयों के साथ इन बीजों को आपस में बांटता था तो वे किसान इन बीजों से अन्य गुणवत्तायुक्त बीज तैयार कर सकते थे।

डॉ. राव के अनुसार 60 के दशक में बीज उत्पादन को लाभ का धंधा माने जाना लगा लेकिन इसमें टिकाऊपन के जरूरी था कि किसान वापस से बीज कंपनियों के पास जाएं और उनसे अच्छे बीज लें। हालांकि यह कोई टिकाऊ बिजनेस मॉडल के रूप में नहीं उभरा क्योंकि किसान एक बार बीज लेकर स्वयं भी अच्छी किस्म के बीज तैयार कर सकता है।

गुलाबी मक्का

इसको एक टिकाऊ व लाभ का धंधा बनाने के लिए बीज कंपनियों ने ऐसे बीज बनाने शुरू कर दिए जिनसे किसान अगले सीजन के लिए बीज तैयार नहीं कर सकते थे। यहीं से संकर व जीएमओ बीजों की उत्पत्ति हुई। आज बीज कंपनियां किसानों को संकर किस्म के बीज ही उपलब्ध करवाती हैं।

बीते 50 वर्षों में किसानों की बीजों को संरक्षित करने की प्रवृत्ति में पूरी तरह से बदलाव आ गया। आज यह चलन बन गया है कि किसानों को हर सीजन में बीज खरीदने ही पड़ते हैं।

डॉ. राव बताते हैं कि 70 के दशक के अंत में जब वे कृषि में डॉक्टरेट की पढ़ाई कर रहे थे तब उनके साथ के अन्य वैज्ञानिकों व पीढ़ी ने इंडस्ट्रीयल एग्रीकल्चर को काफी बढ़ावा दिया। वो हम ही थे जिन्होंने किसानों को रासायनिक कृषि को अपनाने के लिए उकसाया। हम ही हैं जिन्होंने किसानों को उर्वरक व डीएपी छिड़कने के लिए बढ़ावा दिया। वो हम ही हैं जिन्होंने संकर किस्म के बीजों को अपनाने के लिए किसानों से आग्रह किया क्योंकि हमें जरूरत थी कि केंद्रीय खाद्य नीति बनाने और किसानों को उनके अधिकार देने की। मुझे लगता है कि हम वैज्ञानिकों ने सफलता हासिल की है।

डॉ. राव बताते हैं कि इन सब के बावजूद मेरे अंदर से एक आवाज मुझे कचोटती है कि क्या हम ये सही कर रहे हैं। वो आवाज मुझसे यही पूछती है कि क्या यह सही में कृषि का टिकाऊ प्रारूप है।

हालांकि मेरे इस सफर का सबसे रोमांचित पल वही होता है जब हम उस पीढ़ी के किसानों से मिलते हैं और उनके अनुभव साझा करते हैं जो अपने उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं। पिछले 25 वर्षों से मैं ऐसे ही स्वदेशी बीजों की खोज में हूं और भारत व दूर-दराज के इलाकों में जाकर मैंने उन्हें इकट्ठा किया है।

जब मैं सन् 2011 में भारत वापस आया तो मैंने फुल टाइम सीड कीपर बनने का फैसला किया। अब तक मैंने 540 किस्म के स्वदेशी बीज इकट्ठे किए हैं।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि डॉ. राव ने बैंगलुरू के बाहरी क्षेत्र में बनी हरियाली सीड फाम्र्स पर जाकर इन किस्मों का परखा है ताकि आनुवांशिक स्थिरता व टिकाऊपन का पता लगाया जा सके।

यहां आपको 23 टमाटरों की 19 किस्में, शिमला मिर्च व मिर्च की 24, बैंगन की 6, भिंडी की 5, तुलसी की 11, सरसों और खाने योग्य लैटस पत्तों की 15 किस्मों के साथ अन्य आकर्षक किस्में मिल जाएंगी जिनको उगाया व संरक्षित किया जा रहा है। पिछले 6 वर्षों से मैंने 142 स्वदेशी किस्म की सब्जियों को उगाने व इनके बीजों को संरक्षित करने का कार्य कर रहा हूं।

   

पिछले दो सालों में हमने यह बीज अपने जानकारों, किसानों, गार्डनर्स को दिए हैं जिनके परिणाम संतोषजनक हैं। कई लोगों ने तो स्वयं इन बीजों की मदद से खेती करना शुरू किया है और उन्हें इसमें मजा भी आ रहा है। कई किसान इस बीजों से अच्छी आमदनी प्राप्त कर रहे हैं।

यहां तक कि एक किसान ने तो इन स्वदेशी किस्म के बीजों को अपनाकर चैरी टमाटर को विभिन्न रंगों में तैयार किया है जो दिखने में बिल्कुल कैंडी जैसे हैं। वो इन टमाटर को 300 रूपये किलो की दर से बाजार में बेचते हैं। इन किस्मों को अपनाने का सबसे बडा फायदा यह है कि ये भारतीय वातावरण व मौसम के अनुकूल हैं और किसी भी परिस्थिति में वे आसानी से पनप सकते हैं। यदि आप भी संपर्क करना चाहते हैं तो 9611922480 या [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।

English Summary: Over 500 types of indigenous seeds are preserving by this scientist ... Published on: 06 February 2018, 06:09 AM IST

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